हीरा बनकर भी तू, अंगूठी में जड़ा रह गया,
मुसाफिर आगे निकल गए तू खड़ा रह गया|
कभी सूरज सा जला कभी सविता सा बहा
कभी बादल सा जिया कभी कविता सा कहा
बरसात के एहसासों को घड़ता रह गया
सावन आगे निकल गया तू खड़ा रह गया|
ख्यालों में जगा, नींदों में रहा
आसमानों में जिया, पागल सा कहा,
अनजाने सपनो को पढता रह गया
नैना आगे निकल गए तू खड़ा रह गया |
बनकर मूरत सा मंदिर में पड़ा रह गया
मैं दरवाजे पर था तू खड़ा रह गया,
तू कुछ न बोला और सब जाम भर गया
तू खुदा बन गया मैं ख़ालिक़ रह गया ।
नितेश र महलावत
This poem has not been translated into any other language yet.
I would like to translate this poem