वोटों के भिखारी Poem by Upendra Singh 'suman'

वोटों के भिखारी

फिरते हैं मारे-मारे वोटों के भिखारी.
करतब दिखा रहे हैं दिल्ली के मदारी.

लड़ते हैं, झगड़ते हैं, देते हैं गालियां.
बच्चे भी उनको देख बजाते हैं तालियां.
कोई गुंडा है, कोई चोर, तस्कर, कोई हत्यारा , .
तैयार है इनके लिए संसद का अखाड़ा

लोकतंत्र पर 'सुमन', ये पड़ रहे हैं भारी.
फिरते हैं मारे-मारे वोटों के भिखारी.

इनसे ही यारों सुन लो खुद इनकी जुबानी.
कहतें हैं एक दूजे की, खुद ये कहानी.
कोई कहता किसी को कुत्ता कोई कहे आतताई.
बगुला भगत हैं आपस में, कर रहे लड़ाई.

बेचैन हैं पाने को ये सत्ता की सवारी.
फिरते हैं मारे-मारे वोटों के भिखारी.

फिरते हैं मारे-मारे वोटों के भिखारी.
कोई जहर है उगलता कोई आग लगाता.
कोई है दाने फेंककर के जाल बिछाता.
युक्ति-चाल, दांव-पेंच सब हैं लगाते.
बनता नहीं है काम तो, हैं धौंस जमाते.

औकात पर उतरे हैं जनमत के शिकारी.
फिरते हैं मारे-मारे वोटों के भिखारी.

उपेन्द्र सिंह 'सुमन'

Tuesday, December 1, 2015
Topic(s) of this poem: democracy
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