अभी कल की बात है
रेल यात्रा के दौरान डब्बे में
एक काला कोटधारी प्राणी घुस आया.
उसका हाव-भाव व लूट-पाट का
ख़ास अंदाज देख मैं चकराया.
कुछ लोग उसे रेलवे का ब्रांडेड लुटेरा
तो कुछ लोग उसे टीटीई बता रहे थे
और बिना मांगे ही उसकी ओर नोट बढ़ा रहे थे.
चौकाने वाली बात तो ये थी कि -
न तो उसके पास कोई घातक हथियार था
और ना ही चेहरे पर
क्रोध व हिंसा का ही अधिकार था.
उसके हाथ में महज कागज व कलम थी,
मगर उसकी हनक क्या किसी आतंकी से कम थी.
वह बेहद सरकारी अंदाज लोगों को लूट रहा था.
लोग लुट रहे थे और बेचारे भीतर ही भीतर घुट रहे थे.
वह ब्रांडेड लुटेरा नोटों से अपनी जेबें भर रहा था
और बार-बार इतने में नहीं, इतने में नहीं कह रहा था.
कभी-कभी उसके साथ खाकी वर्दीवाले
बंदूकधारी भी आते थे और उसके इशारे पर
यात्रियों को डराते-धमकाते
और उनको उनकी असली औकात बताते थे.
लूट-पाट मचाते हुए
जब वह ब्रांडेड लुटेरा कुछ आगे की ओर डोला
तो मैं यात्रियों की ओर मुखातिब होते हुए बोला -
भारतीय रेल की व्यवस्था भी बेहद बदहाल है.
मेरी इस टिप्पणी पर हैरानी जताते हुए
और असली मुद्दे पर आते हुए
कई यात्री एक साथ मुँह खोल पड़े
और आँख फाड़ते हुए बोल पड़े
भई, वाह! कमाल है.
आप किसी और दुनिया से आये हो क्या?
अरे साहब,
अपने हिन्दुस्तान का तो यही हाल है.
यहाँ सर्वत्र भ्रष्टाचार का जाल है.
कभी-कभी तो पानी सिर के ऊपर से गुजर जाता है
और तब लगता है कि -
गाँधी के देश में अब जीना भी मुहाल है.
This poem has not been translated into any other language yet.
I would like to translate this poem
रेल के एक डिब्बे में हुयी घटना के हवाले से आपने हमारे पूरे समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार पर सुंदर कटाक्ष किया है. धन्यवाद, उपेन्द्र जी.