ढूढ़ना है। Poem by Ajay Srivastava

ढूढ़ना है।

हर रोज शाम देने आती है।
थोड़ा सा आराम दे जाती है।
कह कर जाती है तैयार रहने को।
फिर से कर्म करने को।

आज भी आंसू आ गए।
भाव विभोर होकर बह गए।
कह गए तुम्हारे पास अभी नरम दिल है।
जो दर्द और भावनाओ को समझता है।

रात कह गयी मेने अपना कर्म कर दिया।
बस अब तो तुम्हे अपना कर्म करना है।
मुझे भी आना है तुम्हे भी आना है।
कुछ न कुछ हर एक को देने की नीयति।
हर किसी को अच्छी को ढूढ़ना है।

ढूढ़ना  है।
Friday, February 10, 2017
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