दुआ Poem by Vipin Sharma

दुआ

चली न जाए कहीं और इस ठिकाने से।
जो आ गई है दुआ लब पे इक बहाने से।

उसी का नाम लिखा बारहाँ यूँ ग़ज़लों में
छुपाए फिरता था मैं जिसको जमाने से।

तेरा हिसाब करुं, दे ज़िन्दगी बही-खाता
कि छूट जाऊँ जरा मैं भी बोझ उठाने से।

गरज-परस्त हूँ मैं, बेवफ़ा हूँ, झूठा हूँ
वो बाज आता नहीं तोहमतें लगाने से।

मेरे गले से लगो तो मैं अपना मानूं तुम्हें
कि दिल कहाँ हैं मिले हाथ के मिलाने से।

उन्हें भी और कोई छत मिल गई शायद
परिंदे आते नहीं अब मेरे बुलाने से।

पड़ेगा दिल के अंधेरे में कोई फर्क ''चिराग''
तुझे बुझाने से क्या और तुझे जलाने से।


चिराग बरेलवी
ता0 - 21/04/2014

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दुआ
Thursday, April 21, 2016
Topic(s) of this poem: pain
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