कुछ भी तो नहीं था अब
वो तेरी यादें भी
दम तोड़ने लगीं थीं
थकने लगीं थीं
वजह भी तो नहीं मिलती थी
कब तक बेवजह इस तरह
तुझे याद करती रहती
हर रोज़ सुबह को तेरी यादो पे
एक मुट्ठी ख्यालों की डाल रहा था
हर रात को आँशु उसे भीगा
और मजबूत कर रहे थे
कितनी परते तोड़ता
हर रोज़ एक तोड़ता
हर रोज़ एक बढ़ता
किसी दिन दर्द ज्यादा हो जाता
तो उस दिन परत का हिसाब रह जाता
इस तरह न जाने तेरे इंतज़ार में
कितनी पड़ते चढ़ गयी
दर्द है इनके चढ़ने का भी
दर्द है तुझसे बिछड़ने का भी
दर्द है तेरे जाने का
दर्द है उस जगह से आगे बढ़ने का भी
जिस दर्द से खुद को आगे बढ़ाया
अब उम्मीद नहीं है
और अगर हो भी तोह वजह नहीं मिलने देता
पत्थर तोह बन गया वो परत एक टुकड़ा अब
और वज़ह इस वजह का भी दर्द है
अब इस दर्द की वैसे ही आदत हो गयी जैसे तेरी थी
अब इसी से मुहब्बत हो गयी है
बिलकुल वैसे ही डर लगता है
इस दर्द के न होने पे
जैसे तेरे साथ होने पर
तेरे से अलग होने के ख्याल से
मैं बिखर जाता था ! ! !
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