बचपन की यादें Poem by Rakesh Sinha

बचपन की यादें

महानगरों की इस भागती-दौड़ती जिंदगी में,
कहीं खो गया है चैनो-सुकून |
न परिवार के लिये समय है, न खुद के लिये,
दिलों को रौशन नहीं करते यहाँ मंदिर के दिये |
बहुत याद आता है छोटे शहरों में गुजरा बचपन,
पर अब तो उम्र भी हो गयी पचपन |
गर्मियों की उन अलसाई सी रातों में,
छत की चारपाई पर लेटकर चाँद-तारों को निहारना
या विविधभारती के गीतों के संग सुर में सुर मिलाना |
कुहरे की चादर में लिपटी, सर्दियों की ठिठुरती सुबहों में
मुँह से श्वास के छल्ले बनाना |
मौसम की पहली बारिश में मिट्टी की सोंधी खुशबू का लुत्फ उठाना,
या गीली मिट्टी में सनकर फुटबॉल के मजे उड़ाना |
वो पतंगें, वो कंचे, वो गिल्ली-डंडे का खेल,
उस अद्भुत आंनंद का नहीं कोई मेल |
न इतना competition था, न coaching का stress,
न थी ऐसी चाहत कि लोगों को करें impress.
वो गर्मियों की छुट्टियों में दादी-नानी के घर जाना,
बगिया से तोड़-तोड़ कर रसीले आम खाना |
वो फैंटम, मैन्ड्रेक और फ्लैश-गॉर्डन के comics में खो जाना,
वो अकबर-बीरबल के किस्सों के संग हंसना-हंसाना |
वो चर्खेवाली रील की सिनेमा की दुनिया,
वो रील खत्म होने पर हुल्लड़ मचाना |
यादों के झरोखे से अब भी झांकता है बचपन,
पर अब तो उम्र भी हो गयी पचपन |

Tuesday, August 23, 2016
Topic(s) of this poem: childhood ,reminiscences
COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Close
Error Success