कौन यहाँ? Poem by Sonu Sahgam

कौन यहाँ?

-: कौन यहाँ? : : -

जख्मों को हमारे, मरहम लगता, कौन यहाँ?
जीने की लाठी जो टूट चुकी, जोड़ता, कौन यहाँ?
गुल खिला, गुलिस्ताँ इक बनाया था हमने,
आज उन सूखे पेड़ों को, सिंचता, कौन यहाँ?

आरमान सारे गवा दिये अपने, जिसको बनाने में ।
वो महफिलें, रंगरलियाँ मनाता, अपने आरामखाने में ॥
तरस गए दो शब्द प्यार के सुनने को, उनसे
आँखों के सूखे मोती को, देखता, कौन यहाँ?

हैं जिनके नाम से ऊंची ऊंची इमारतें ।
दिल मे ही कैद रही, थी जो हसरतें ॥
नौकर-चाकर, महाराज, थे जिस घर में,
आज भूखे पेट को निवाला, खिलाता, कौन यहाँ?

तू जीये हजारों साल, तरक्की दर तरक्की हो ।
दुआ है हमारी, हो बुलंदी, खुशियाँ ही खुशियाँ हो ॥
आज है जिनकी सौकड़ों मिलें, कारखानें, वस्त्रों की
मगर, हमारे तंज़, फटें कपड़ों को, सिता, कौन यहाँ?
-: सोनू सहगम: -

Tuesday, January 3, 2017
Topic(s) of this poem: poems
COMMENTS OF THE POEM
Pushpa P Parjiea 09 March 2017

बेहद खुबसूरत ग़ज़ल... आज के समय की सही पहचान है आपकी इस ग़ज़ल में सब अपने में मस्त हैं किसी के लिए किसी के पास समय नहीं.

0 0 Reply
Sonu Sahgam 09 March 2017

बिलकुल! सही कहा अपने......पुष्पा जी

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Jaya Das 03 January 2017

beautiful ghazal...bahot acha tha....thank you wish to more from you jaya

0 0 Reply
Sonu Sahgam 04 January 2017

धन्यवाद! ! जया जी

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