भिक्षुक Poem by mahender Talwara

भिक्षुक

एक देखा भिक्षुक ऐसा, जो ले रहा था हिलोरा
तन पर चादर ओढे, लिए हाथ मे कटोरा।

आँखो मेँ लिए वो अपनी आख्यान,
दिला रहा था अपनी और ध्यान,
माँग रहा था भीख सरेआम बाजार
भुलकर अपना मान-ईमान।

कुछ दे देते भीख अपने मन को मारकर,
कुछ हो जाते दुर उसे नीच जात का मानकर,
फिर भी ना कर पाया आक्रोश
वो अपनी हालत जानकर।

ईधर से उधर, उधर से ईधर वो युहीँ भटक रहा था,
बस युहीँ भटकते-2 उसका जीवन घट रहा था,
जिस जीवन की खातर वह उठा रहा था आफत,
वही जीवन खुद उसको ओर नीचे पटक रहा था।

ईतने पर भी शायद वो खुश था थोङा-थोङा।
तन पर चादर ओढे लिए हाथ मेँ कटोरा।।

Monday, January 30, 2017
Topic(s) of this poem: hindi
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mahender Talwara

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talwara khurd, teh. Ellenabad
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