तरक्क़ी का मंत्र Poem by A.T Zakir

तरक्क़ी का मंत्र

प्रयासों और उपलब्धियों की पटरियों पर,
दो स्टेशनों –
सफलता और असफलता
के बीच
चला करती थी कभी,
जीवन की रेलगाड़ी!

परन्तु आज –
पसीने और मेहनत से चलने वाला,
भाप का इंजन कहीं खो गया है |
हमारे – आपके पतन पर,
मुँह छुपा के कहीं सो गया है |

आज तो –
बिजली की रेल है,
चारों ओर बेईमानी की रेलमपेल है |
इसका इंजन कोयला – पानी नहीं,
मूल्यहीनता की बिजली पचाता है,
और मूल्यहीनता की बिजली से,
सर्वशक्तिमान पैसे का चुम्बक बनाता है |
इसी पैसे का तो सारा खेल है,
बाबूजी! यही तरक्क़ी की रेल है |

इस रेल में बैठना है?
तो –
सत्य, नैतिकता, ईमानदारी, मेहनत,
चरित्र और देशप्रेम को भुला दीजिये,
बेकार की दकियानूसी बातें हैं सारी,
इन्हें अँधेरी कोठरी में सुला दीजिये |
आइये! आइये!
तरक्क़ी की रेलगाड़ी में आइये!
ए.सी, स्लीपर किसी भी क्लास में बैठिये,
बिलकुल मत घबराइये |
ईमानदारी से रिश्वत खाइये,
और नैतिकता से रिश्वत खिलाइये |

बस फिर आज से –
अरे आज से नहीं, अभी से –
हर सफलता आपकी होगी |
आपकी क्या? आपके बाप की होगी |
संस्कारों और मूल्यों वाले,
असफलताओं की नाली में
पड़े रह जायेंगे,
आप मूल्यहीन हो गये हैं ना?
तो साहब, अब देखिये अपनी तरक्क़ी!
अब आप चलेंगे नहीं भागेंगे!
और बाकी सारे बेवकूफ़,
अपने जगह खड़े रह जायेंगे |
हमारे चारों ओर की दुनिया,
सिर्फ़ गड़बड़तंत्र है,
और ऊपर जो मैंने बतलाया,
वही तरक्क़ी का मंत्र है |

(रचनाकाल: ०९-०९-८८)

POET'S NOTES ABOUT THE POEM
भारत में जीने वाली मंझली पीढ़ी आज भी मूल्यों के संघर्ष से जूझ रही है | सीखे हुए संस्कार और मूल्य आज आउट ऑफ डेट हो गए हैं | जिनके कारण घोर असंतोष व्याप्त है | यह कविता इन्ही मूल्यों की लड़ाई है | एक ओर हमारे पुराने मूल्य हैं जो हार रहे हैं और दूसरी ओर आज की मूल्यहीनता है |
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