सर्द धूप की ये तपिश सवाल करती है,
घास पे ओस की ये नमी सवाल करती है,
मुकम्मल है कोई जवाब दे, ना दे,
मगर हवा मकानों से सवाल करती है।
मेरी दीवारों के उस तरफ खेलते बच्चे,
जिनकी फ़ितरत में ही है मुस्कुराते रहना,
मगर हर शाम अपनी माँ के अश्कों तले,
उनकी नज़रे सब जवाबों से सवाल करती है।
वो जो शहर भर में यारो के साथ फिरता रहा,
चार पल की तन्हाई उसे डसने सी क्यों लगी,
और ये जो तनहा ही हँसता चला हर दम,
तो इसकी हँसीं उसके सवालो से सवाल करती है।
ना बारिशों से हमने बरसने को कहा,
ना सर्द हवा से भी ठिठुरने को कहा,
फिर भी सवाल उतने ही हर ओर उतरते ही रहे हरदम,
'अश्क़ ' बेबसी जैसे सब खयालों से सवाल करती है।
Sawaloon ke sawaal ka koi jawaab nahin. aapki kaviata ka bhi koi jawaab nahin. Beautiful poem..Loved reading it.
This poem has not been translated into any other language yet.
I would like to translate this poem
Thank you so much geetha...