अभी तो निकले थे इस सपनों के शहर से
जज्बातों के झूले से गिर कर
फिर मजबूर मेहसूस कर रहा हूं मैं
सीढ़ियां चढ़ कर
फिसलपट्टी की चोटी पर खड़ा सोच रहा हूं मैं
देख रहा हूं मैं और भी झूलों को
ये झूले कहीं लेकर जाते नहीं
वो बच्चा तो खुश था अभी
देखो तो कैसे रो रहा है वो
मां चुप करा रही है उसे
घुटनों के चोट को चूमती वो
सफेद पल्लू से आंसू पोछती
उस झूले को भी तो मारा मा ने
मैं पत्थर सा खड़ा सोच रहा हूं
इतनी सी चोट पर कौन रोता है भला
मै सुन रहा हूं उसकी सिसकियां
ख़ुदा की ज़बान हो जैसे
के पहली दफा दिल का टूटना है ये
के झूले बहुत मज़ेदार है ये
पर रुलाती भी है
ये झूले हमें कुछ सिखाती तो है
सीढ़ियां चढ़ कर
फिसलपट्टी की चोटी पर खड़ा सोच रहा हूं मैं
क्यों सोच रहा हूं मै?
वो बच्चा दोबारा झूले पर बैठ कर
मानो चिढ़ा रहा हो मुझे
सिखा रहा हो मतलब ज़िन्दगी का मुझे
मै भी फिसल गया बिना वक़्त गवाए फिर
ये ज़िन्दगी कहीं लेकर जाती नहीं
_ ताबिश रज़ा
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