झूले Poem by Tabish Raza

झूले

अभी तो निकले थे इस सपनों के शहर से
जज्बातों के झूले से गिर कर
फिर मजबूर मेहसूस कर रहा हूं मैं
सीढ़ियां चढ़ कर
फिसलपट्टी की चोटी पर खड़ा सोच रहा हूं मैं
देख रहा हूं मैं और भी झूलों को
ये झूले कहीं लेकर जाते नहीं

वो बच्चा तो खुश था अभी
देखो तो कैसे रो रहा है वो
मां चुप करा रही है उसे
घुटनों के चोट को चूमती वो
सफेद पल्लू से आंसू पोछती
उस झूले को भी तो मारा मा ने

मैं पत्थर सा खड़ा सोच रहा हूं
इतनी सी चोट पर कौन रोता है भला
मै सुन रहा हूं उसकी सिसकियां
ख़ुदा की ज़बान हो जैसे
के पहली दफा दिल का टूटना है ये
के झूले बहुत मज़ेदार है ये
पर रुलाती भी है
ये झूले हमें कुछ सिखाती तो है

सीढ़ियां चढ़ कर
फिसलपट्टी की चोटी पर खड़ा सोच रहा हूं मैं
क्यों सोच रहा हूं मै?
वो बच्चा दोबारा झूले पर बैठ कर
मानो चिढ़ा रहा हो मुझे
सिखा रहा हो मतलब ज़िन्दगी का मुझे
मै भी फिसल गया बिना वक़्त गवाए फिर
ये ज़िन्दगी कहीं लेकर जाती नहीं

_ ताबिश रज़ा

Wednesday, July 29, 2020
Topic(s) of this poem: life
COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Tabish Raza

Tabish Raza

ranchi
Close
Error Success