.दरवाज़े से,
जमीन का साथ देती
झिर्री से गुजरी......
.एक चिट्ठी,
अधुरा सा अपनापन लिए हुए,
तैरे थे एकांत ओढ़े शब्द इति कहने के बाद भी,
अंतस में रक्खे एक चिंगार ने तापे थे बीते अनकहे से बरस,
सिरहाने रक्खी नीम की पत्तियों ने सेके थे कुछ कुहासे,
पारन्ति के फूलों को ज़बान पर घुलाती,
अजनबियत का गिलाफ ओढ़े
रिश्तों को,
काढ़ा सा पीती,
कसांद्रा का शाप अपने कांधों पर उठाये
ढो रही हूँ अग्यातवास.
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I would like to translate this poem
Showing inner anguish of loosing something. Nice one.