दर्पण Poem by Shobha Khare

दर्पण

जैसा मन वैसा मनुज दर्पण यह संसार
अपनी ही छवि देखता इस मे बारंबार
करुणा तो उपचार है अति भावुकता रोग
कहते जिसे विवेक बुद्धि भावना योग
तुलना मत कर किसी से तुलना करना पाप
संस्कार सबके अलग, अलग सत्य का जाप
भावुकता संवेदना करती है नुकसान
इस युग मे तो सफल है पत्थर दिल इंसान II

Friday, April 24, 2015
Topic(s) of this poem: life
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