डर लगता है Poem by Raghawendra Pandey

डर लगता है

ये हथकड़ियाँ और सलाखें, डर लगता है
लुटी शांति आए दिन रहता रेड-अलर्ट है शहरों में
जीवन की मधुरसता खोयी फ़न फैलाती लहरों में
बारूदी सुरंग पर बैठी इस दुनियाँ को अल्ला राखें, डर लगता है

टूट रहा विश्वास जहां में मानवता का मोल चुका है
अभी एक वर्दी वाला कुछ ज़ोर ज़ोर से बोल चुका है
मन मे अनबन, हमराही का दिया हुआ कुछ कैसे चाखें, डर लगता है

सुबह-सुबह मंदिर जाकर, देवीजी को दो फूल चढ़ाए
चाह रही लाडो, पर कैसे घर के बाहर क़दम बढ़ाए
गली-गली में खड़े भेड़िए, घूम रही ललचायी आँखें, डर लगता है

सुर में सुर सहमति सबकी, इस अगर-मगर से अच्छा है
गाँव हमारा माटी का, ......इस महानगर से अच्छा है
दिन-प्रतिदिन इस यक्षनगर में, ज़ोर-ज़ुर्म की बढ़ती शाखें, डर लगता है

Thursday, June 11, 2015
Topic(s) of this poem: poem
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