जलधारा Poem by Shobha Khare

जलधारा

घन सघन हुए बरसें झमझम
जलधारा नहीं रही है थम I

सघन शाल वन झूम रहे है
पवन झकोरे घूम रहे है I

है मैदान हो गए जलमय
लहरे नर्तन करती तन्मय I

केशराशि बिखराकर बादल
सुलगाते उरमय विहरानल I

झड़ी लगी है कैसी मनहर
बरस रहे है बादल झर झर झर II

Wednesday, August 5, 2015
Topic(s) of this poem: life
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