Aaj ki Baat - आज की बात  Poem by Abhaya Sharma

Aaj ki Baat - आज की बात 

आज कहने जो चला हूं
कह चुका पहले भी हूं

कर में अपने है
कलम जब भी मिला
कुछ न कुछ लिख कर कहा 
और कुछ कह लिख दिया

पर कहा लिखा किसी ने कब पढ़ा
या कि पढ कर कब किसी ने है करा

आज फिर दोहरा रहा हूं
बात अपनी
देवता का रूप था जो
दैत्य कैसे बन गया
मानवों के बीच ये कैसे
था दानव मिल गया

हम धरा के पुत्र हैं
संसार की संतान है
पर अभी तक भाईचारे से
निपट अंजान हैं

रंग की बाते बताते
भेद मन में सौ बिठाते
बैर रखते द्वेष करते
और हाथों में लिये हथियार आते
घोंट देते है गला इंसानियत का  
और कर देते है हत्या
मानविकता की यहां

सांस कोई ले न पाये चैन से
जी ना पाये ठीक से सुख चैन से
सो ना पाये कोई भी अब चैन से
ऎसी हमने चाल है अपनी बना ली

मानवों ने मानविकता ही भुला दी
कोई मरता है मरे अपनी बला से

हमने अपनी झोली भर ली
है कला से
क्या यही सुख इस जहां में रह गया है
धन की लोलुपता में मानव बह गया है

आंख अपनी बंद है चारो तरफ़ से
आज परदा शर्म का भी हट गया
और सिर पर खून है सवार सबके
चल मेरे मन तू निकल ले
इस जहां से
दूर ऎसे गांव ना फिर
लौटकर आना वहां से
हाल जग का देखकर
जी भर गया है
लग रहा है
मन मेरा भी मर गया है ।

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Abhaya Sharma

Abhaya Sharma

Bijnor, UP, India
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