अपने हाथों से ही बुझाते हो...Apne hathose Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

अपने हाथों से ही बुझाते हो...Apne hathose

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अपने हाथों से ही बुझाते हो

में अभी मर भी सकता नहीं
क्योंकि लिखना अभी बाकी है
कितने सारे मनसूबे है संजोये
इसलिए रहते है हम खोये खोये

लेखनी का द्वार खुलते ही
उँगलियों के साथ में मचलते ही
सपने अपने आप, साकार नजर आते है
गुलाब उगे हुए बंजर जमी पर दिखाई देते है

ये है करिश्मा सारा ही देंन है
वरना हम क्या है दिल के ही दीन है
क्या लिख पाते या नहीं लिख पाते?
दिल के अरमान दिल में ही सताते

न मरुंगा में आज और कल भी मरुंगा
पुरा कवि बनकर दिलों पे राज करूंगा
कोई भी कहानी अपनी जब दोहराएगा
मेरा मुस्कुराता चेहरा ही उस मे पायेगा

किसका घर उजड़ा और किसका घर बस गया?
येही सोचकर मुझे दिल से रोना आ गया
ना किसी का चमन उझड़े ना किसीका बसाया घर
मेरी सोच है बकाया दिल से उसके उपर

ठीक है यदि मेरा जीना सफल हो गया
ना हुआ तो समजो असफल ही रह गया
मेरा मकसद मेरा कारवां बिच में ही रुक गया
में आया था इसलिए पर खाली हाथ लोट गया

तुम सब में दीखती है मुझे एक आशा की किरण
पर तुम दोड़ते रहते हो जैसे गभराया हुआ हिरण
अपनी खुश्बू अपनी नाभि में लिए ही घूमते हो
फिर भी अपने ही चिराग को अपने हाथों से ही बुझाते हो

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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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