बहुत सोचा Bahut Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

बहुत सोचा Bahut

बहुत सोचा

बहुत सोचा अपने बारे में
झीझक आती है कहने में
कैसे करे कोई अपनी बुराई मन से?
कम्बख्त पेट ही तो है लगा हुआ तन से।

पेट कराता वेठ
करात सब उठ बैठ
कितनो की सुननी पड़ती है
बहुत लज्जित कराती है।

हर बात में टांग अड़ाना
बात बात में हंसी ले आना
किसीकी गरीबी को सरेआम उछालना
अपना ही उल्लू सीधा हो ऐसी कोशिश करना।

ये सब अपनी खूबियां है
अपने पतन की चाबियां है
पता नहीं कौन से मोड़ पर लाके रख दे?
हमारी शाख दांव पर लगा दे!

मैंने सोचा है
प्रयोग अनूठा है
किसी को अपनी राय नहीं देनी है
फरिश्ता बन ने की कोशिश नहीं करनी है।

आईने ने मुझे राह दिखादी है
इसमें सब की बर्बादी है
पहले अपनेआपको सुधारो
फिर किसी के सामने उच्चारण करो।

तुम्हारी सिख उसके लिए घातक होगी
किसीके घर में आतंक मचाएगी
किसीका घर भी उझड़ सकता है
शांतिवाला माहौल खराब हो सकता है।

बहुत सोचा Bahut
Friday, June 9, 2017
Topic(s) of this poem: poem
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welcome manisha mehta Like · Reply · 1 · Just now

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तुम्हारी सिख उसके लिए घातक होगी किसीके घर में आतंक मचाएगी किसीका घर भी उझड़ सकता है शांतिवाला माहौल खराब हो सकता है।

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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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