यूँ तो हू लिपटी साड़ी में,
घर की चार दिवारी मे ।
उलझी हू जिम्मेदारी में,
कहलाती हू नारी मै ।
सपने आँसमान से ऊँचे है,
पर पंख मेरे कतरे हैं।
बुलंद मेरे सपने है,
पर हमराही ही झूठे हैं।
छोटी छोटी खुशियाँ जिस भाई पर थी लुटाई,
राँखी का था नाता जब तक ना हुई थी विदाई।
और पिता ने भी तो बस फर्ज ही निभाया,
हर चाहत भुला कर घर से विदा कराया ।
कभी जली मै सती प्रथा मे
कभी मरी दहेज प्रथा मे,
पर सहलाया दूनियाँ को
अपनी ममता के छाँव तले।
कह दो अगर ये है गाँव की दास्तां,
तो शहरों मे भी मुझे कहा मिला मान?
दुख होता है मुझे बहुत सुन
निर्भया की दर्द की दास्तां ।
सह लिये बहुत से गम
अब बदलेगा नारी जीवन,
हमसे ही है शक्ति सारी
फिर क्यों दुनियाँ बेचारी ।
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