एक ग़ज़ल- मज़ा आ गया
उनका अंदाज़ ज़ेहन पे यूं छा गया|
कुछ न कहिये ‘सुमन' बस मज़ा आ गया|
रूख़ से जुल्फों की काली घटा जो उठी|
यूँ लगा चाँद ख़ुद मेरे घर आ गया|
उनसे नज़रें जो दो-चार मेरी हुईं|
बिन पिए यार मुझ पे नशा छा गया|
स्याह आखों में मय का समंदर ‘सुमन'|
रिंद मैं साक़िया की रज़ा पा गया|
हुस्न की इस कफ़स को मैं क्या नाम दूँ|
ख़ूबसूरत सी मैं इक सज़ा पा गया|
उपेन्द्र सिंह ‘सुमन'
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