साकी Poem by Upendra Singh 'suman'

साकी

लड़खड़ा जाते हैं कदम, तुझको आज़माने में.
डूबते कितनों को देखा, साकी तेरे पैमाने में.

कितने ही लुट गए ‘सुमन’, तेरे आशियाने में.
ज़लवा है तेरा देखा, हमने शराबखाने में.

कहकंशा किसने क्या देखा, कभी ज़माने में.
ज़न्नत की तकदीर लिए, बैठें हैं हम मैखाने में.

हर कोशिश हुई नाकाम, साकी तुझे मिटने की.
हमने भी देख ली ‘सुमन’, औकात जमाने की.

सदियाँ यूँ ही गुजरती रहीं, मंसूबे बनाने में.
सुरूर साकी का, बढ़ता रहा पैमाने में.

जाम से जाम यूँ ही, टकराते रहेगें मैखाने में.
दिन साल और सदियाँ, समा जायेंगी पैमाने में.

उपेन्द्र सिंह ‘सुमन’

Friday, December 4, 2015
Topic(s) of this poem: wine
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