कोई ले नहीं सकता अपने सर दूसरों की बलाएँ।
भुगतनी पड़ती है सबको क़यामत अपनी-अपनी।।
मुमकिन है मुलाकात हो खैर-ख्वाहों से राह-ए-मुकद्दर पर।
ढूँढनी पड़ती है मग़र सबको मंजिलें अपनी-अपनी।।
कलम में जोर नहीं ला सकते किसी और के जज़्बात।
करनी पड़ती है अहसासों से सुर्ख़ रूह अपनी-अपनी।।
सफ़र-ए-इल्म में हमराह होंगे हमकदम बेशुमार।
उठानी पड़ती है मग़र सबको रोशनाई अपनी-अपनी।।
मय्यत उठाने को तो फिर भी मिल जाएंगे चार कंधे।
ढोनी पड़ती है मगर सबको ज़िन्दगी अपनी-अपनी।।
- जयदीप जोशी 'बेलाग़'
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