है यही अभिलाष मेरा! Poem by Sachin Brahmvanshi

है यही अभिलाष मेरा!

छू लूँ गगन बिना लिए पर,
किसी का न हो मुझको डर;
मंजिल छोडू न भी मरकर,
है यही अभिलाष मेरा ।

सामर्थ्य रहे इतना मुझमें,
कर पाऊँ जन का उद्धार;
बनूँ मैं दीन का जीवनाधार,
कुछ न लगे मुझे अपार;
है यही अभिलाष मेरा ।

करे यदि कोई भ्रष्टाचार,
कर दूँ उसे मैं तार-तार;
न हो मन में वाद-विवाद,
सर्वत्र परस्पर हो शुभ-संवाद;
है यही अभिलाष मेरा ।

दिखे कहीं जो दहशतगर्दी,
मिटा दूँ उसे मैं बिना कोई वर्दी;
प्रसारित हो एक ही संदेश,
दर्जा मिले मानस को एक;
अब भिन्नता रहे न शेष,
है यही अभिलाष मेरा ।

अरिदल यों ललकार भरे यों मातृभूमि पर,
मृत्युपति यमराज बनूँ संहार करूँ,
शांति-सुमंगल प्रेमामृत से जग का मैं शृंगार करूँ,
स्वच्छंद भाव से भारत माँ की नित मैं जय-जयकार करूँ;
है यही अभिलाष मेरा ।

है यही अभिलाष मेरा!
Tuesday, August 29, 2017
Topic(s) of this poem: desire
COMMENTS OF THE POEM
Dr Shakira Nandini 22 October 2017

Your thinking is as high as you are. I am very impressed by this poem.10+++

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Sachin Brahmvanshi

Sachin Brahmvanshi

Jaunpur, Uttar Pradesh
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