छू लूँ गगन बिना लिए पर,
किसी का न हो मुझको डर;
मंजिल छोडू न भी मरकर,
है यही अभिलाष मेरा ।
सामर्थ्य रहे इतना मुझमें,
कर पाऊँ जन का उद्धार;
बनूँ मैं दीन का जीवनाधार,
कुछ न लगे मुझे अपार;
है यही अभिलाष मेरा ।
करे यदि कोई भ्रष्टाचार,
कर दूँ उसे मैं तार-तार;
न हो मन में वाद-विवाद,
सर्वत्र परस्पर हो शुभ-संवाद;
है यही अभिलाष मेरा ।
दिखे कहीं जो दहशतगर्दी,
मिटा दूँ उसे मैं बिना कोई वर्दी;
प्रसारित हो एक ही संदेश,
दर्जा मिले मानस को एक;
अब भिन्नता रहे न शेष,
है यही अभिलाष मेरा ।
अरिदल यों ललकार भरे यों मातृभूमि पर,
मृत्युपति यमराज बनूँ संहार करूँ,
शांति-सुमंगल प्रेमामृत से जग का मैं शृंगार करूँ,
स्वच्छंद भाव से भारत माँ की नित मैं जय-जयकार करूँ;
है यही अभिलाष मेरा ।
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