मैं पाताल में बसना चाहती हूँ Poem by Sahira Sargam

मैं पाताल में बसना चाहती हूँ

एक खूबसूरत आशियां यारों का ढ़ह गया
खलिस यादों का सोहबत का रह गया,
खामोश कयामत वो न दोबारा देखना चाहती हूंँ,
दोस्तों का दामन छोड़ रकीबों संग रहना चाहती हूँ,
आज जिस्म में खलबली मच गई,
रुह किसी दलदल में फंस गई,
न जमीं पर रहना न आसमां तकना चाहती हूँ,
बन जाने दो रास्ता मैं पाताल में बसना चाहती हूँ
न अल्फाज न कोई लफ्ज किसी नज्म के लिए,
न शेर न कोई मुक्ता गजल के लिए,
अब चुप्पी ही आईने में निहारना चाहती हूँ,
खामोशियों की भी एक पत्रिका निकालना चाहती हूँ
तकरार हो गई मेरी मेरे अक्स से,
वादे तोड़कर मिल गया हमराही हमशख्स से,
हरारत में किसी के फिर भी भींगना चाहती हूँ,
खुद ही के कदमों से हर राह जीतना चाहती हूँ
दायरा मेरे मर्तवा का कम हो गया,
तहरीर मेरे एहसासों का खतम हो गया,
हर दायरा तोड़ना हर कागज मरोड़ना चाहती हूँ,
हर साँस बेलगाम लेना और छोड़ना चाहती हूँ।

COMMENTS OF THE POEM
Jazib Kamalvi 04 February 2018

Could not read. Please write English script. Thanks.

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