क्यूँ न हो?
हर ज़ुबां पे ज़िन्दगी का, है गीत अलहदा;
गुलज़ार करे जो हर दिल को, ऐसा तराना क्यूँ न हो?
लिख ली है हर कौम ने, अपने हिस्से की इबारत;
बने नज़ीर जो सारी खुदाई के लिए, ऐसा अफ़साना क्यूँ न हो?
बेवजह फड़फड़ाते रहे अब तलाक, अपने पंख फ़िज़ाओं में;
शम-ए-फ़रोज़ा पे खाक़, आज ये परवाना क्यूँ न हो?
अय्यारी के इस आलम में, जो रख सके दामन साफ़;
ऐसी पाक-ओ-मक़बूल शख्सियत, रश्क-ए-ज़माना क्यूँ न हो?
अपनों के जश्न में तो, सभी झूमते हैं 'बेलाग';
बेगानी शादी में अब्दुल्ला, अब दीवाना क्यूँ न हो?
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