धरती हवन कुंड भई बरस-बरस मेघा रे|
तुझ बिन रहे ये मन तरस-तरस मेघा रे|
भू का सिंगार लुटा लुट गई धानी चुनर|
पियराती वसुधा को परस-परस मेघा रे|
नदियों को कल-कल दे जीवन दे तू जल दे|
हो जाये तन-मन ये सरस-सरस मेघा रे|
तड़प रही मीन दीन प्यासी चिरइया है|
बीत गया बरसे तुझे बरष-बरष मेघा रे|
घोर घटा काली जो झूम-झूम बरसे तो|
ठुमके मन मोर मोरा हरष-हरष मेघा रे|
उपेन्द्र सिंह ‘सुमन'
This poem has not been translated into any other language yet.
I would like to translate this poem