Baras-Baras Megha Re Poem by Upendra Singh 'suman'

Baras-Baras Megha Re

धरती हवन कुंड भई बरस-बरस मेघा रे|
तुझ बिन रहे ये मन तरस-तरस मेघा रे|

भू का सिंगार लुटा लुट गई धानी चुनर|
पियराती वसुधा को परस-परस मेघा रे|
नदियों को कल-कल दे जीवन दे तू जल दे|
हो जाये तन-मन ये सरस-सरस मेघा रे|
तड़प रही मीन दीन प्यासी चिरइया है|
बीत गया बरसे तुझे बरष-बरष मेघा रे|
घोर घटा काली जो झूम-झूम बरसे तो|
ठुमके मन मोर मोरा हरष-हरष मेघा रे|
उपेन्द्र सिंह ‘सुमन'

Friday, July 11, 2014
Topic(s) of this poem: Rain
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