जड़ भूलोगे तो पेड़ कितना फलेगा Poem by Lalit Kaira

जड़ भूलोगे तो पेड़ कितना फलेगा

होली के डंगर जाने कहाँ खो गए हैं।
सावन की झड़ी में अब कौन 'भट' भूटता है
अब तो चक्की चलती है फर्र फर्र
ओखल में धान कौन कूटता है
याद है
गेहू की पिसाई कागज का टुकड़ा नहीं
बल्कि घटोयिये का भाग होता था
कुछ न होने पर थाली में
'ल्योण-बनाड़' का साग होता था

आने वाले का स्वागत दही से होता था
ये आम तले चौपाल
बैसि का मुहूर्त
नवरात्र का परेवा
ब्याह बारात
अच्छा बुरा हर फैसला यहीं से होता था

आज न आम का पेड़ है
न चौपाल है
न सेमल की सब्जी है
न कांसे का थाल है
हिसालू किल्मौड़ गुजरा जमाना है
आज किंडर जॉय है, कुरकुरे है, लेज है
हम तो भौंदू थे
पर आज के बच्चे अथाह तेज हैं
ये अंग्रेजी स्कूल में जाते हैं
अपनी बोली भूल गए हैं
अंग्रेजी में ही बोलते हँसते गाते मुस्कुराते हैं

सब कुछ बदल रहा है
सुविधाएं है आराम है
जीवन संवर रहा है
दुनियां मुट्ठी में आ गयी है
पर ये कितना चलेगा
जड़ भूलोगे तो पेड़ कितना फलेगा

Monday, November 2, 2015
Topic(s) of this poem: life
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 02 November 2015

कविता बहुत सारगर्भित है. मैं इस बात से सहमत हूँ कि भौतिक विकास के दौड़ में हम अपनी जड़ों से दूर होते चले जा रहे हैं. इससे संभव है हम आर्थिक शक्ति के रूप में अपना स्टेटस बढ़ा लें, लेकिन इसके साथ जो दिखावा, असंतोष, सहनशीलता की कमी और परस्पर सम्मान का ह्रास उपजेगा वह हमें ले डूबेगा. धन्यवाद. ये आम तले चौपाल अच्छा बुरा हर फैसला यहीं से होता था ....जड़ भूलोगे तो पेड़ कितना फलेगा

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Lalit Kaira

Lalit Kaira

Binta, India
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