आवाज चीख चीख कर आएगी खंडहरों से
क्या कहे और क्या न कहें
सब दुःख है अच्छे यदि न सहे
फिर उस के बारे में क्या सोचना?
जब उनको हमारे पीछे रहना ही है लगे रहना
गरीब का कोई बेली नहीं
उनके लिए कोई बोली नहीं
सब अपनी रोटियाँ शेक रहे है
चोर डकैतों को अपनी शरण में लेकर शह दे रहे है
ये चाहते है उनको कोई कुछ ना पूंछे
मर ने वाले के घर में जाकर कोई आंसू भी ना लुछे
संविधान में ये प्रावधान हो की उनपर कोई कारवाई न हो
वो खजाना लूंटते रहे और जनता को मालूमात भी न हो
यह संविधान किस ले लिए है और किसके लिए बनाया गया है?
क्या उसको पोथी में लपेटकर, सुनहरे अक्षरों से सजाया गया है?
हम क्या करे ऐसे विधानों को जिसे हमारा पेट भी ना भरा जा सके?
हक़ की आप क्या बात कर रहे हो हमारी आवाज भी वहां तक न पहुँच सके?
लाखो मन गेहू यु ही सड गया खुले मैदानों में
जो बचा था वो रेल के ट्रेक पर उसे छोड़ दिया गया भिगाने में
गरीब को नसीब नहीं हुआ एक दाना भी जिस पर उनका हक़ था
बस उनको तो ये बच न जाए उसका ही खौफ था!
एक बार हम फिर शर्मसार हो जायेंगे
वो जूठेपन को अमली जामा पहनाते रहेंगे
ना इनको काला सर्प कभी डंस लेता है
और नाही काला बुखार अपनी छाया में लपेट लेता है
बहुत हो गया अब मान्यवर
जनता को अब लग गयी है सब खबर
आप बेखबर न रहे सब ख़बरों से
आवाज चीख चीख कर आएगी खंडहरों से
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