'Hamsafar' Poem by Devesh Chauhan

'Hamsafar'

Rating: 4.0


जब बात एक 'हमसफ़र' की चल निकली है तो,
रंज अपनी महफ़िल सजाने में क्या है: 'देव'
दिखादे दर्द अपने जब ज़माने की सोहबत है
यहाँ तो दर्द देने का कारोबार होता है,

जो हमको छोड़कर बैठे है गैरों की महफ़िल में
उन्ही को बेवफा कहने का बस यही मौका है

हमे तो दास्ताँ बनाने को बेताब है ये शमां!
जरा पूछो तो इससे की पतिंगे का क्या भरोसा है
यही एक रास्ते में बैठा है कोई जमजम पिलाने को
हमे तो बोतलों की हर बूंद ने रोका है!

आज बैठो मेरे हमसफ़र बनकर ऐ दोस्त
तुझे किसने बताया की ये बंदा अकेला है
मेरे तो रस्ते में ही मंजिल का साथी है
खुद का खेल है ये बस तू मोहरा अकेला है। …।

COMMENTS OF THE POEM
Ramesh Rai 26 September 2013

Wah! Wah! Kya baat Hai. Kya baat Hai. Bhaut hi Achha likha hai aapne.

1 0 Reply
Bri Edwards 23 September 2013

sorry. i can't read it.

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Manjusha Vishwaakrma 21 September 2013

nice one dear i pray you will win

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Abhishek Mishra 20 September 2013

Very nice poem...: -) keep writing.

0 0 Reply
Saurav Kumar 19 September 2013

Nice lines Devesh chauhan, u will surely be the winner....

7 0 Reply
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