• इतिहास की पीड़ा //आफ़ताब आलम'दरवेश'
जब इतिहास को पढ़ने के लिए नहीं
समझने के लिये पढ़ा, मुझे लगा
हमें सच्चाई छुपाने और
झूठ को अपनाने की आदत सी है
या यूँ कहूँ
पढ़ने की नहीं गढ़ने की आदत सी है
मुझ में इतनी शक्ति भी नहीं की
इतिहास की पीड़ा का बीड़ा उठा सकूँ
एक दर्द है जिसे टटोलता हूँ
एक एहसास है जिसे जिन्दा रखना चाहता हूँ
देश बँटा क्यों?
इसके पीछे मंशा क्या थी?
इसके पीछे किसका हाथ है?
क्या वो हाथ आज भी सक्रीय है? ......
हमें भूलने की बिमारी है-
उन्हें बदलने की
सच को झूठ - झूठ को सच
कुछ ऐसे भी हैं-
जिन्हें भुनाने की आदत है
“नामी बनिया का नाम बिकता है”
ये कहावत कितना सार्थक दिखता है
हमारे देश मे तीन तरह की इतिहास है
पिड़ित, मृत और चलित
अन्तिम से ही देश चल रहा है
प्रथम से देश जल रहा है
मध्यम भय पैदा कर रहा है////
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The way you have analysed the paradox of our history is just wonderful. We always try to obviate the realities to look more civilised and advanced. The following lines are true for all time to come: हमारे देश मे तीन तरह की इतिहास है / पिड़ित, मृत और चलित / अन्तिम से ही देश चल रहा है / प्रथम से देश जल रहा है / मध्यम भय पैदा कर रहा है//// Thanks for this bold commentary on our obsolete mind set which is the root cause of this 'Itihas Ki Peeda'.