मोहबब्त भी मरती है Poem by Priya Guru

मोहबब्त भी मरती है

अपनी मोहबब्त पे तो मोहबब्त भी मरती है
चाहत से ज्यादा चाह प्यार जुबां से भी करती है
तुम क्या हिसाब लोगे हमारे एहसासों का अब
ये खिदमत ये कुर्बत अब खुद ही नवाज़ी भरती हैं ज़ानिब
कभी जाना था नहीं वजूद मोहब्बत का मेरे सिवा
और है कसम-इ-कायनात ये तेरी याद भी हमी पे मरती है

Wednesday, March 16, 2016
Topic(s) of this poem: eternity,love,universe
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