जगाकर आत्मा अपने को
देखो मन के दर्पण में
कभी असहाय दुख पीड़ित
गरीबों का ख्याल आया |
बहुत उम्मीद थी तुमसे
नया आलोक बिखरेगा
तुम आए ढला सूरज
अंधेरा और घिर आया |
वट वृक्ष जिसकी छांव में
भय मुक्त रहना था
काँटों की चुभन पीड़ा
लहू तन से निकल आया |
कहां थी कल्पना हम
चंद्रमा पर घर बनायेगे
मिलीं न छत पड़ी अब
जिंदगी पर साँझ की छाया |
जिन्हें आश्वासनो के ढेर में
अब तक दबा रखा
सुलग कर देखो अब उनका
फटने का समय आया |
मिथक थी पास आ तेरे
कोई खाली नही जाता
वक्त का यह सितम कौशल
जो था वह् भी गवां आया |
..............कौशल अस्थाना
jab vakth nay berukh apnaya vakth biththa gaya aur Aatma sirf saya ki tarah he reh gaya....Kaushal ji appki kavitha bahuth acchi hai...
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kabile - tareef.....i like it