जिन्दगी के आयने में जब भी चेहरा देखता हूँ
कौन हूँ मैं? कहाँ है मंजिल? डगर पूछता हूँ ॥
भटक रहा हूँ अपने शहर में अनजाने की तरह
वो पनघट, वो पीपल, वो चौपाल ढूँढता हूँ ।।
हैरान हूँ मैं, उस इंसान को देखकर
जुबान होते हुए भी बेजुबान देखता हूँ ॥
एक बार एक जईफ ने एक बात कही थी
‘मैं जुबान के रस्ते चेहरे से बोलता हूँ ‘
शायद कहीं खो गई, वो प्यार की मंजिल
खंजर लिए इंसान यहाँ, मैं देखता हूँ! ॥
वो अल्हड़पन, वो सादगी, वो ख्याल अब कहाँ
बिक रहे हैं ईमान ये मैं क्या देखता हूँ!
बदल गया हूँ मैं या जमाना बदल गया
‘दरवेश' तू बता ये मैं क्या सोंचता हूँ!
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It reflects ur mind and perception towards people and the real 'you'. A truth can be seen in a mirror if looked by heart. Best! Keep writing such positive poems that shows negativity of the world.