कुछ कह नहीं पाता/ आफ़ताब आलम'दरवेश'
बहुत कुछ कहना चाह्ता हूँ,
फिर भी कुछ कह नहीं पाता!
किसी पर जुर्म हो,
ये भी तो सह नहीं पाता//
अपने इरादों से दूर,
घनें अंधेरे जँगल में,
आस्था और विचारों के दंगल में,
हार कर पूछ्ता हुँ,
खुद से,
रह कर मौन....
मैं हूँ कौन? ...
कुछ न सुन पाकर,
हो जाता हूँ बेचैन...
तब मैं............
नींद बेच कर,
शब्द खरीदता हुँ
अक्षरों के बाजार से....
ढेर सारे..
क्रूर, कुरूप,
अटपटा, भद्दा,
सुन्दर, प्यारे-प्यारे..
सबके सब हत्यारे....................
ये शब्द मेरी ही हत्या करते हैं
काश मैं जी पाता......
शायद कुछ कह पाता....
बहुत कुछ कहना चाहता हूँ.......//
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