खरगोश अँधेरे में
धीरे-धीरे कुतर रहे हैं पृथ्वी ।
पृथ्वी को ढोकर
धीरे-धीरे ले जा रही हैं चींटियाँ ।
अपने डंक पर साधे हुए पृथ्वी को
आगे बढ़ते जा रहे हैं बिच्छू ।
एक अधपके अमरूद की तरह
तोड़कर पृथ्वी को
हाथ में लिये है
मेरी बेटी ।
अँधेरे और उजाले में
सदियों से
अपना ठौर खोज रही है पृथ्वी
(रचनाकालः1985)
...
बच्चे
अंतरिक्ष में
एक दिन निकलेंगे
अपनी धुन में,
और बीनकर ले आयेंगे
अधखाये फलों और
रकम-रकम के पत्थरों की तरह
कुछ तारों को ।
आकाश को पुरानी चांदनी की तरह
अपने कंधों पर ढोकर
अपने खेल के लिए
उठा ले आयेंगे बच्चे
एक दिन ।
बच्चे एक दिन यमलोक पर धावा बोलेंगे
और छुड़ा ले आयेंगे
सब पुरखों को
वापस पृथ्वी पर,
और फिर आँखें फाड़े
विस्मय से सुनते रहेंगे
एक अनन्त कहानी
सदियों तक ।
बच्चे एक दिन......
(रचनाकालः1986)
...
वह जा रहा है
सड़क पर
एक आदमी
अपनी जेब से निकालकर बीड़ी सुलगाता हुआ
धूप में-
इतिहास के अंधेरे
चिड़ियों के शोर
पेड़ों में बिखरे हरेपन से बेख़बर
वह आदमी ...
बिजली के तारों पर बैठे पक्षी
उसे देखते हैं या नहीं - कहना मुश्किल है
हालांकि हवा उसकी बीड़ी के धुएं को
उड़ाकर ले जा रही है जहां भी वह ले जा सकती है ....
वह आदमी
सड़क पर जा रहा है
अपनी ज़िंदगी का दुख-सुख लिए
और ऐसे जैसे कि उसके ऐसे जाने पर
किसी को फ़र्क नहीं पड़ता
और कोई नहीं देखता उसे
न देवता¸ न आकाश और न ही
संसार की चिंता करने वाले लोग
वह आदमी जा रहा है
जैसे शब्दकोष से
एक शब्द जा रहा है
लोप की ओर ....
और यह कविता न ही उसका जाना रोक सकती है
और न ही उसका इस तरह नामहीन
ओझल होना ......
कल जब शब्द नहीं होगा
और न ही यह आदमी
तब थोड़ी-सी जगह होगी
खाली-सी
पर अनदेखी
और एक और आदमी
उसे रौंदता हुआ चला जाएगा।
...
चंपे के फूल मुंह उठाए
देखते हैं सूर्य की ओर¸
तार पर बैठी एक चिड़िया
ताकती है सूर्योदय¸
जाड़े में सरदी से कुकुड़ता
एक बच्चा उम्मीद से
बैठता है धूप में।
अपनी धुरी पर स्थिर और अचल
सूर्य
देखता है फूल को¸ चिड़िया को¸
बच्चे को
अपने ही प्रताप से
पकती फ़सलों को
सूर्य को नहीं सूझ पड़ती
वनस्पतियां¸ लोग और
रंभाते-जमुहाते पशुओं की कतारें
सूर्य ऊपर की ओर देखता है
शून्य में¸ अन्यमनस्क
सूर्य के धधकते अंतस में
बैठा है अंधेरा
सूर्य को दिखाई नहीं देता
धूप न सूर्य की नन्हीं उंगलियां हैं
न आंखें
धूप सिर्फ़ दृष्टि है
सब पर बिखरी पर कुछ भी न देख पाती
एक नेत्रहीन की।
...
प्रार्थना के शब्दों की तरह
पवित्र और दीप्त
वे बच्चे
उठाते हैं अपने हाथ¸
अपनी आंखें¸
अपना नन्हा-सा जीवन
उन सबके लिए
जो बचाना चाहते हैं पृथ्वी¸
जो ललचाते नहीं हैं पड़ोसी से
जो घायल की मदद के लिए
रुकते हैं रास्ते पर।
बच्चे उठाते हैं
अपने खिलौने
उन देवताओं के लिए-
जो रखते हैं चुपके से
बुढ़िया के पास अन्न¸
चिड़ियों के बच्चों के पास दाने¸
जो खाली कर देते हैं रातोंरात
बेईमानों के भंडार
वे बच्चे प्रार्थना करना नहीं जानते
वे सिर्फ़ प्रार्थना के शब्दों की तरह
पवित्र और दीप्त
उठाते हैं अपने हाथ।
...
एक बार जो ढल जाएंगे
शायद ही फिर खिल पाएंगे।
फूल शब्द या प्रेम
पंख स्वप्न या याद
जीवन से जब छूट गए तो
फिर न वापस आएंगे।
अभी बचाने या सहेजने का अवसर है
अभी बैठकर साथ
गीत गाने का क्षण है।
अभी मृत्यु से दांव लगाकर
समय जीत जाने का क्षण है।
कुम्हलाने के बाद
झुलसकर ढह जाने के बाद
फिर बैठ पछताएंगे।
एक बार जो ढल जाएंगे
शायद ही फिर खिल पाएंगे।
...
उसने कहा
उसके पास एक छोटा सा हृदय है
जैसे धूप कहे
उसके पास थोड़ी सी रौशनी है
आग कहे
उसके पास थोड़ी सी गरमाहट- -
धूप नहीं कहती उसके पास अंतरिक्ष है
आग नहीं कहती उसके पास लपटें
वह नहीं कहती उसके पास देह ।
...
ट्रेन के बरामदे में खड़े लोग
बाहर की ओर देखते हैं पर न तो जल्दी ही
उतरने और न ही कहीं अंदर
बैठने की जगह पाने की उम्मीद में
बिना उम्मीद के इस सफ़र में
दिदिया भी कहीं होगी दुबकी बैठी
या ऐसे ही कोने में कहीं खड़ी
और पता नहीं उसने काका की खोज की भी या नहीं
दोनों अब इस ट्रेन में हैं जो बिना कहीं रुके
न जाने किस ओर चली जा रही है हहराती हुई
कहीं सीट पर
बरसों पहले आयी कुछ महीनों की बहन भी है
जिसका चेहरा भी याद नहीं और बड़ी सफ़ेद दाढ़ीवाले
मंत्र बुदबुदाते बाबा भी
न कोई नाम है न संख्या न रंग
सब एक दूसरे से बेख़बर हैं और बेसामान
न ट्रेन के रुकने का इंतज़ार है न किसी के आने का
नीचे घास पर आँगन में छुकछुक गाड़ी का खेल खेलते
जूनू डुल्लो दूबी चिंकू
उस ट्रेन की किसी खिड़की से
दिदिया को पता नहीं दीख पड़ते हैं या नहीं?
...
चीटियाँ इतिहास में नहीं होती :
उनकी कतारें उसके भूगोल के आरपार फैल जाती हैं;
किसी चींटी अपनी नन्हीं सी काया पर
इतिहास की धूल पड़ने देती है ।
चींटियाँ सच की भी चिंता नहीं करतीं :
सच भी अपने व्यास में
रेंग रही चींटी को शामिल करना ज़रूरी नहीं समझता ।
चींटी का समय लंबा न होता होगा :
जितना होता है उसमें वह उस समय से परेशान होती है
इसका कोई ज्ञात प्रमाण नहीं है ।
इतिहास, सच और समय से परे और उनके द्वारा अलक्षित
चींटी का जीवन फिर भी जीवन है :
जिजीविषा से भरा-पूरा,
सिवाय इसके कि चींटी कभी नहीं गिड़गिड़ाती
कि उसे कोई देखता नहीं, दर्ज नहीं करता
या कि अपने में शामिल नहीं करता ।
कवि की मुश्किल यह नहीं कि वह चींटी क्यों नहीं है
बल्कि यह कि शायद वह है,
लेकिन न लोग उसे रहने देते हैं,
न इतिहास, सच या समय ।
...
कोई नहीं सुनता पुकार-
सुनती है कान खड़े कर
सीढियों पर चौकन्नी खड़ी बिल्ली,
जिसे ठीक से पता नहीं कि
डर कर भाग जाना चाहिए या
ठिठककर एकटक उस ओर देखना चाहिए।
कोई नहीं सुनता चीख़-
सुनती है खिड़की के बाहर
हरियाये पेड़ पर अचानक आ गई नीली चिड़िया,
जिसे पता नहीं कि यह चीख़ है
या कि आवाज़ों के तुमुल में से एक और आवाज़।
कोई नहीं सुनता प्रार्थना-
सुनती है अपने पालने में लेटी दुधमुंही बच्ची,
जो आदिम अंधेरे से निकलकर उजाले में आने पर
इतनी भौंचक है
कि उसके लिए अभी आवाज़
होने, न होने के बीच का सुनसान है।
श्रेणी: कविता
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