तरस Poem by Ajay Srivastava

तरस

परिस्थित देख कर आ जाता है।
परिस्थित देख खाना पड़ता है ।
ना चाहते हुए भी आ जाता है।
हर किसी को नहीं आता ।
केवल उनको आता जिनमे इंसानियत होती है ।

जो उचित और अनुचित का भेद कर सकते है उनको आता है ।
गैर कानूनी हो तो नहीं आता ।
सब इसको नहीं अपना सकते ।

काश ऐसा हो सबको तरस करना आ जाये ।

तरस
Wednesday, October 14, 2015
Topic(s) of this poem: human
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