जरा सोचिये Poem by Ajay Srivastava

जरा सोचिये

Rating: 4.0

कभी प्यार का प्रदर्शन
कभी क्रूरता का प्रदर्शन
बनाने वाले की गलती कहुँ
या फिर समय का दोष कहुँ

सुख की छाव और मधुर स्वाद को
पल भर में निजी स्वार्थ के लिए उजाड़ देना।

मासूम वन्य जीवन से प्यार जाताना
अगले ही छण
उन्ही का खून पीते हो।
उन्ही का भोजन बनाते हो।

यह तो अहसास मानवता का या फिर क्रूरता का
मानवता और आतंक में अंतर का एहसास।

दोनों में मारने की एकरूपता है।
मानवता बेजुबान को मारती है।
आतंक बोलने वालो को मारती है।
और प्रकृति दोनों से एक साथ हिसाब कर लेती है।

परमपिता परमेश्वर का मानवता को
कहो ना संतुलन का सन्देश है।
जरा सोचिये

जरा सोचिये
Thursday, December 3, 2015
Topic(s) of this poem: think
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 03 December 2015

मानवता बेजुबान को मारती है। आतंक बोलने वालो को मारती है।.... मैं आपके इस विचार से सहमत हूँ कि कुछ समाज विरोधी तत्व वन्य पशुओं को व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए चोरी से मारते हैं. इसे रोकने के लिए प्रभावी कदम उठाये जाने चाहिये. आतंक पर तो आजकल विश्व भर की नज़र है.

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Ajay Srivastava 04 December 2015

T'hanks

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