भारतवर्ष की-मकर संक्रांति Poem by Ajay Srivastava

भारतवर्ष की-मकर संक्रांति

मन से कुविचार का स्नान|
कर्म मे सुविचार की अनुभूति|
रंगने की चाहत है अनुभूति को|

संग की अभिलाषा रखता हूँ|
कार्य कठिन और दुर्गम करना चाहता हुँ|
तिनके तिनके को पहचान दिलाने की ईच्छा है|

भागने का चाहत है, चलने को पीछे छोड कर|
रम जाना है सबको सुविचारो मे रंगना है|
तभी तो क्रांति का आगमन होगा|

भारतवर्ष की इसी शहशाओ वाले स्नान की चाहत है|

भारतवर्ष की-मकर संक्रांति
Monday, January 16, 2017
Topic(s) of this poem: festival
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