प्रकृति Poem by Ajay Srivastava

प्रकृति

जहाँ देखो वहाँ तबाही
ना धर्म देखती ना जात देखती
चाहे हो एशिया या फिर हो
यूरोप, अमेरिका, अफ्रीका 11

कही बाढ तो कही सूखा
या फिर हो जवालामुखी
और अगिन का हो क्रोध 11

मानव जीवन और अर्थव्यवस्था की बेहिसाब हानि
अपनो को खोने का दुख
केवल वापस आने की आशा
पर कुछ भी पहले जेसा नही
केवल याद ही रह जाती है 11


जेसे विज्ञान का मजाक उडाती
कह जाती तुम चाहे जितना भी
अपनी पर ईतरा लो
या फिर प्रकृति पर नियंत्रण का दावा कर लो
मै तो प्रकृति हुँ जो चाहूगी जब चाहूगी
कर लूगी रोक सको तो रोक लो 11

समाधान केवल वृक्षारोपण है 11

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