सुबह सुबह ठण्ड से कुम्हलाई,
चुलबुली धुप ने खिडकियों पे दस्तक दी.
कहा, उठ जाओ, मैं मिलने आई हूँ,
सुना है तुम्हे धुप से डर लगता है!
मैं अपनी चादर में सिमटा, अलसाया,
अंगड़ाई लेते हुए खिड़की खोली |
खिड़कियाँ खुलने की देर थी की देखते ही देखते,
पूरे कमरे में गुनगुनी धुप फ़ैल गयी|
कहने लगी, ' देखो, धूप सिर्फ जलाती ही नहीं,
अपनी गर्माहट से तुम्हे उम्मीद की तसल्ली भी देती है.
तुम तो डरते हो की झुलस जाओगे,
क्या मैं, सुबह की रौशनी, तुम्हे कभी जलाऊंगी...!
मेरे मन में सवाल उठे, मगर मैंने उन्हें दबाये रखा,
सुबह के शांत होते ही खिड़कियाँ फिर चढ़ा लीं|
फिर सोचने लगा, ' बहार क उजाले को देख कबतक,
अन्दर के अँधेरे से बेखबर रहने की कोशिश करूँगा.. |
बाहर सवेरा रोज़ निकलता है, दिन, फिर शाम भी होती है,
मगर अन्दर की रात में तीसरा पहर जाने कबसे है |
न जाने को तैयार होता है, न भोर ही आने की जिद करती है,
ऐसे में मन तो हिचकेगा, सुबह की धुप से मिलने में...
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very very nicely expressed................. well done bhaiyaa...............