ज़ख़्म... Poem by Ritika Abigail

ज़ख़्म...

फिर किसी ने कह दिया
आज हमें दिलजला,
कुछ ज़ख़्म ताज़े हो गये
जिन्हें वक़्त था बख़ूबी भर चला
लाज़मी है ये तड़प
और दर्द की चिनग़ारिया
पर लौ के डर से कोई
छोड़ देता है क्या जीना भला ।
#RA

Thursday, June 5, 2014
Topic(s) of this poem: love hurts
COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Close
Error Success