नुर जरा निखरा नही Poem by dhirajkumar taksande

नुर जरा निखरा नही

आँख से अरमाँ भी सदियो से उतरा नही
कत्ल हो हररोज पर खून का कतरा नही
मुर्दो की तरह जिता हु सवारकर तकदिर जलता हु रोज पर मौत का खतरा नही

माहोल जिंदगी का बरसो से सुधरा नही
प्यार का खुद पर एतबार भी ठहरा नही
तलवारोसे मिलती है हुकुमते जहा रोज
वही मै टूटता रहा बस बिखरा नही

स्वर्ण सा चमकालू ऐसा कोई फतरा नही
कभी बुध्द भी मेरे सासोंसे गुजरा नही
गीरा वही जो जीवन का है अंधा कुऑ
आग मे पकालु अभी नूर जरा निखरा नही.

Sunday, January 4, 2015
Topic(s) of this poem: human condition
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