|| मेरे मौन को न समझी तुम || Poem by Anand Prabhat Mishra

|| मेरे मौन को न समझी तुम ||

मेरे मौन को न समझी तुम
आंखे तो पढ़ लेती..
क्यूं तुम्हें देख कर ठहर जाता था
क्यूं तुम्हें देख चेहरे की चमक बढ़ जाती थी
अनकही सी जो बातें थीं वो
जुबां की लाचारी तो समझ लेती
मेरे मौन को न समझी तुम
आंखे तो पढ़ लेती..

तुम से कहने को ना जाने कितनी बातें हृदय में उमड़ी
जिन्हें हम तुम्हारी स्वतंत्रता की रक्षा हेतु मौन के भेंट चढ़ाएं
तुमने न जानें कितने सवालों का प्रहार किया मुझपर
फिर भी हम तुमसे कुछ कह न पाएं
प्रश्नचिन्ह से पहले शब्दों की व्याकुलता तो पढ़ लेती
मेरे मौन को न समझी तुम
आंखे तो पढ़ लेती...

झुकी पलकें मेरी कभी तुम्हारे चेहरे तक
पहुंचने की साहस ना कर सकी
तुम्हारे समक्ष आ सकें मेरे चाहतों के नुमाइंदे
इतनी इजाज़त तुम दे ना सकी
माना सस्ते से थें मेरे हालात मगर
तुम अपने महंगे विचारों के प्रतिबंधों पर
थोड़ी तोल मोल तो कर लेती
मेरे मौन को न समझी तुम
आंखे तो पढ़ लेती..

तुम्हें नहीं तुम्हारी परछाई को देखा था
तुम्हारे सुंदर स्वरूप से ज्यादा
तुम्हारी अच्छाई को देखा था
न मिली कोई बात नहीं
तुम सदा मेरे अतीत के दर्पण में संवरती रहोगी
तुम्हारे बीते कल में मैं और तुम मेरी आज में रहोगी
स्वच्छता की परिभाषा माथे पर लिपिबद्ध नहीं होती
हर लड़कें की नजर गंदी नहीं होती
मेरे मौन को न समझी तुम
आंखे तो पढ़ लेती...

बीते समय को वापस नहीं ला सकता
हां मगर तुम्हें भुलाया भी नहीं जा सकता
सब कुछ वहीं रुका सा है
सब कुछ वैसे हीं बिखड़ा पड़ा सा है
टूटी हुई उम्मीदें और प्रेम के मोती
जो तुम्हारे हीं स्वरूप को सजाने के लिए थें
एक बार उठा कर उन्हें अपने मन के आंचल में
संभाल कर रख तो लेती
जो भी तुम्हारे काम के हैं
उन्हें तुम चुन तो लेती
मेरे मौन को न समझी तुम
आंखे तो पढ़ लेती...

: - आनन्द प्रभात मिश्र

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