कल-कल बहती नदियां में Poem by Anand Prabhat Mishra

कल-कल बहती नदियां में

कल-कल बहती नदियां में
चाँद का प्रितिबिम्ब हो,
दर्पण के सामने बैठी तुम
खुद को देख रही हो जैसे, ,
एक सुन्दर मुस्कान होठों से
छलकने को आतुर हों,
और ख़्यालों में आज तुम्हारी
किसी ने दस्तक दी हो जैसे, ,
छाँव तुम्हारी जुल्फों से हो
और लगे रात पूर्णिमा की जैसे,
काली घनी जुल्फों सी घटाओं से
चाँद देख रहा हो जैसे, ,

तुम्हारी बचकानी हरकतें और तुम्हारा हल्हड़पन
ये सब देख मुस्कुरा रहा है मेरा मन
राधिका की नादानियों पर
कान्हा मंद मंद मुस्कुराता हो जैसे
बेसुरे हो चुके मेरे जीवन में
तुम मधुर संगीत बन गूंजती हो
पंक में पंकज अकेला खड़ा
और भंवरा गीत सुनाता हो जैसे

तुम्हारी निर्मलता और पवित्रता
अमृत बन कंठ स्वर में समाई है
हृदय के पावन धरातल पर
धड़कनें तुम्हारा गुणगान करती हो जैसे

तुम्हारा सुंदर स्वभाव जैसे शैलेंद्र शिखर
मेरे अंतर्मन के अभ्र को स्पर्श करती हैं
शाश्वत प्रेम बन तुम्हारी शिखाओं से
व्योम धरा का हाल पूछ रहा हो जैसे

बिना तुम्हारे तिमिर में भटकन है
चंद्रमा की ज्योति बन जीवन राह दिखाती हो जैसे
तुम हो तो हृदय में प्रेम की जलधारा बहती है
तुम्हारी हर एक भाव मेरे रक्त कण में प्रवाहित हो जैसे


: - आनंद प्रभात मिश्रा

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