'दर्द का लाल दस्तावेज़' Poem by Anand Prabhat Mishra

'दर्द का लाल दस्तावेज़'

रंग लाल लिखूं या लिखूं कोई दाग़,
रूदन पीड़ाएं लिखूं या लिखूं दर्द राग।
हर महीने का संघर्ष, सहती बिन शोर,
किससे कहूं, कैसे कहूं, कोई देखे तो मेरी ओर।

अवधारणाओं की कैद, नियमों की बेड़ियां,
इससे परे कौन सोचे, भला कैसे जीती हैं लड़कियां।
हर नियम जैसे बंधन, हर धागा जैसे उलझन,
कोई तो लिखे उनकी व्यथा, देखे विचलित मन ।

घर की रसोई, पूजा से दूर
हर रोज़ जो सींचे घर को, वो आज इतनी लाचार और मजबूर?
कौंधे मन में एक ही बात, करे सवाल अब आत्मसम्मान,
क्यों यह शर्म? भला क्यों यह अपमान?

मिथक की लड़ाई में कब तक सहेगी प्रहार?
जो है कुदरत का उपहार, वही बन गया तिरस्कार?
अपने ही अरमानों की किरचें चुभती है अब तो
एक स्त्री, स्त्री होने से डरती है अब तो ।


: -आनंद प्रभात मिश्रा

'दर्द का लाल दस्तावेज़'
Friday, September 27, 2024
Topic(s) of this poem: hindi,poetry,girls
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