मुसाफिर हैं तु
लेखकः कुलदीप शर्मा
मुसाफिर हैं तु भी, मुसाफिर मैं भी हूॅ,
कभी नही मिलेगंे ऐसा लगता था,
दुर चले जाओगें, बहुत याद आओगें,
हँसी जो तुम्हारी कुछ कम नही हैं,
हमेशा बिना बात के हँसायेगी,
देखा था पहली दफा, सोचा नही
इतना रूबरू हो जाउंगा,
आज की क्या बात करू,
आँखो से बाते करते हैं,
दूर होकर भी गजब का विश्वास करते है,
सुना है तेरी आँखे भी गजब हाल करती है,
बेहाल होना चाहता हुॅ पर मुलाकात नही होती है,
क्या दुरी है तुझसे, फिर भी, दुर से ही बहुत बात करते है
न जाने क्यो? रब से तु रोज नजर आये यही फरियाद करते है,
बहका नही हुॅ जिन्दगी से और ना ही दिल का मारा हुॅ फिर भी जब तुझसे बात नही होती तो दिल को कोई बात खलती है,
तु जाती है तो ऐसा लगाता है मुसाफिर हैं,
मैं भी मुसाफिर हुॅ,
अब फिर मिलेगंे कल, यही बात करते हैं।
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