Gudiya Poem by Nisha Bala

Gudiya

न जाने गुड़िया कब बड़ी हो गई...
एक नए परिवार को जोड़ने की कड़ी हो गई|
जिसके चहचाने से खिल उठता था मेरा आँगन,
उस से जगमगाता है अब किसी और का प्रांगण|

जब विदा किया था तो बोला, 'हमारा नाम खूब रौशन करना अब तक जो है सिखलाया, उस से सबके मन का पोषण करना'

क्या मालूम था उसके कन्धों पर बहूत बोझ डाल दिया है,
आज गुड़िया मेरी कहीं लुप्त हो गई?
अब तो बस वे पत्नी, बहु और माँ के नाम से है जानी जाती|
न जाने गुड़िया कब बड़ी हो गई...

Tuesday, November 11, 2014
Topic(s) of this poem: women
COMMENTS OF THE POEM
Kumarmani Mahakul 11 November 2014

Although it was unknown still known in far distance way. Do not know when she drew up. Excellent imagery. Beautiful poem shared really.

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