Maa Poem by Nisha Bala

Maa

सोच रही हूँ ऑंखें मूंदें, क्या बचपन फिर लौट सकेगा..
इस जीवन की पटरी पर, कब तक मस्तिष्क यूँ ही ईंधन जैसा फुकेगा|

बचपन से हैं सुनते आये, जो बीत गया सो बीत गया..
माँ का कहना, 'बेटा पढ़ लो, ये क्षण दोबारा न आएगा, अन्यथा भाग्य का खेला फिर पश्चाताप से तुम्हे सिखलायेगा|'
परन्तु भोला भला नटखट बचपन, माँ की इन बातों मे न पड़ने पाया, अपितु वही किया जो मन को था सुहाया|

विचार मन मे था बार बार उठता, अब तो माँ थक चुकीं होंगीं?
मेरे कहे अनकहे व्यंगयों से पक चुकी होंगीं? परन्तु...
जाने किस मिट्टि की बनी थीं, बस अपनी ही ज़िद पर अड़ीं थीं|
चल न पाया मेरा कोई बहाना, आखिर करवा ही लिया जो माँ ने था ठाना|

सोच रही हूँ ऑंखें मूंदें, क्या बचपन फिर लौट सकेगा..
इस जीवन की पटरी पर, कब तक मस्तिष्क यूँ ही ईंधन जैसा फुकेगा|

अचरज की एक बात सुनी है काल से मैंने, बचपन फिर लौटेगा?
इस बार कुछ धीमा, कुछ थका, कुछ डरा डरा सा..

जी हाँ, अब बचपन जीने की है माँ की बरी...
माँ तेरे जितने मज़बूत कंधे तो मेरे नहीं, पर हर कोशिश है मेरी जारी,
तेरा दिया कुछ अंश इस ही जीवन मे अदा कर सकूँ|

Sunday, May 10, 2015
Topic(s) of this poem: mother and child
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