चेतो! चेतो हे, अंगराज Poem by Upendra Singh 'suman'

चेतो! चेतो हे, अंगराज

अबला की आह दहकती जब, मर्यादा जब मुँह की खाती.
तब-तब सिंहासन हिलता है, फटती दुशासन की छाती.

चेतो! चेतो! हे, अंगराज, इतिहास तुम्हे धिक्कारेगा.
तेरा अधर्म विषधर बनकर, कल तुझको ही ललकारेगा.

दुर्योधन का उत्कोच भला, लेकर कब तक तुम ढोओगे.
आभार तले दबकर कब तक, विधि का रोना तुम रोओगे.

हे, आत्म प्रवंचित महावीर, सच से कब तक तुम भागोगे.
अज्ञान मोह की निद्रा से, तुम दानवीर कब जागोगे.

पददलित हो रही मानवता, रावणी वृति फिर जागी है.
सत्ता के आसन पर बैठे, गद्दार दंड के भागी हैं.

राजधर्म का खून हो रहा, अब निजता की बलिवेदी पर.
तड़प रहा जनतंत्र विवश, मानवता की इस हेठी पर.

हे, महाधनुर्धर सूर्य पुत्र, मान की तुम हो महावीर.
फिर भी क्या ढो सकते हो, बोझ पाप का अति गंभीर.

तुम धर्म द्रोह का ले कलंक, मत दिनकर का अपमान करो.
माधव की सम्मति को मानो, मर्यादा का कुछ मान करो.

वह गुडाकेश भारत गौरव, वह स्वार्थ भाव से रीता है.
उसमें मर्यादा का बंधन, उसमें माधव की गीता है.

यदि तुममें भी साहस है, तो अपना मन-दर्प कुचल डालो.
पहले स्वंय से लड़कर जीतो, फिर युद्ध-भूमि में पग डालो.

विधि को ठहरा उत्तरदायी, जो सत्य-धर्म को छलते हैं.
उनके ही पाप प्रबल बनकर, उनका अस्तित्व निगलते हैं.

मतलब का मोल चुकाने को, जब-जब है सत्य छला जाता.
तब धर्म-युद्ध का दावानल, है धरती का संताप मिटाता.

उपेन्द्र सिंह ‘सुमन’

Sunday, December 6, 2015
Topic(s) of this poem: mythology
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